लालटेन -हरेकृष्ण आचार्य
मुझे ऐसे तीन लोग ज्ञात हैं जिन्होंने भूत का एहसास किया है। और उनमें से एक ने देखा है पर उस समय पहचान नहीं पाए। एक ऐसी घटना का कथन मेरे पिताजी किया करते थे।
बात १९५५ की होगी। उस समय सब पैदल ही जाते थे और गावों के बीच जंगल ही हुआ करते थे। ये है मेरे पिताजी की ज़बानी | पिताजी अपने दादा के बहुत प्रिय थे। दादाजी याने मेरे पड़ दादा।
दादाजी पंडित थे और उनको लोग घर पूजा के लिए बुलाया करते थे। ज़्यादातर ये पूजा सुबह- सुबह ही प्रारंभ करनी पड़ती थी। सुबह जल्दी पहुंचने के लिए दादाजी , जिनको पैदल जाना पड़ता था, सुबह ३-४ बजे ही निकल पड़ते थे। दादाजी को तैयार होता देख मैं भी उठ जाता था और दादाजी के साथ जाने की जिद करता था। कई बार दादाजी मुझे नकार देते थे , जंगली जानवरों का नाम लेकर, पर कई बार मेरा रोना देख वो पिघल जाते थे। ले चलते थे अपने कंधों पर। पकड़ा देते थे मुझे लालटेन आगे के रास्ते को उजला करने के लिए। ये उस दिन की बात है, जिस दिन दादाजी करीब साढ़े - तीन बजे घर से निकले मुझे अपने कंधों पे लिए, मैं लालटेन पकड़े, इस सुध में खोया था कि अब फिर मिलेगा अवसर लोमडियों की टिमटिमाती आंखें देखने का। मुझे इसी बात का बहुत चाव था - अंधेरे में लोमडियों की दूर से टिमटिमाती आंखें! इस बात का दादाजी को ज्ञान नहीं था - लेकिन इसी बात के कारण मैं जिद करता था उनके साथ जाने का।
उस दिन हम निकले और अपने छोटे से गांव को जल्द ही पीछे छोड़े जंगल में पांव के रास्ते से बढ़ते गए। दादाजी काफी तेज चलते थे। सफर भी अंदाजन डेढ़ घंटे पैदल का होगा। कुछ आगे बढ़े तो जंगल घना होता गया। मेरी आंखें लोमडियों की टिमटिमाती आंखें खोजने लगी। कुछ दिखीं , कुछ नहीं। एक तरफ कुछ आगे दो आंखे कुछ सर के ऊपर की ऊंचाई पर दिखीं। ये इतनी पास थीं की मैं दादाजी से पूछ बैठा, की ये दो बत्तियों जैसी चीज क्या है तो उनके जवाब से में सन्न रह गया। उन्होंने सहज ही बोला की वो काले - बाघ (ब्लैक पैंथर) की आंखे हैं। मैंने अपनी आंखें घुमाई और फिर किसी लोमड़ी की आंखें खोजने की कोशिश नहीं की। पर मैं दंग भी था कि दादाजी डरे नहीं और वैसे ही तेज बस चलते रहे। उस अंधेरे का डर अब मुझे समझ आया और मैं टिकटिकी लगाए बस आगे का रास्ता देखता गया। दादाजी चलते रहे। लालटेन जलती रही।
भोर होने का समय अभी भी दूर था, शायद सवा चार बजे होंगे। समय का ज़्यादा पता नहीं चला। मैं अब भी थोड़ा सन्न था। काले बाघ की आंखें अब भी कुछ आंखों के सामने ही थीं। तभी आगे से एक आहट आयी। देखा एक आदमी बस आगे ही खड़ा है, दादाजी के सामने।
लालटेन के उजियारे में ज़्यादा दूर दिखता नहीं था, बस कुछ हाथ, पांव के कुछ आगे, बस। उस आदमी ने दादाजी से उस गांव का रास्ता पूछा जिस गांव हम जा रहे थे। दादाजी ने उसे हमारे पद-चिन्ह देख आने को कहा क्योंकि हम भी वहीं जा रहे थे। वो "अच्छा ठीक" बोलकर हम जिस रास्ते से आ रहे थे , उसी रास्ते, हम जिस गांव से आ रहे थे , उसी ओर चला गया। मैं तो तब भी काले बाघ के बारे में सोच रहा था, पर कुछ देर बाद, मैंने पीछे मुड़ देखा तो अजनबी दिखाई नहीं दिया। मैंने थोड़ी लालटेन उठाकर और भी पीछे तक आंख घुमाई तब भी अजनबी दिखाई नहीं दिया।
अरे! ये कहां गया, मेरे मन में विचार आया, इसे तो हमारे पीछे - पीछे आना चाहिए था, आखिर उसी गांव जा रहा था जहां हम जा रहे थे, तो फिर ये किधर गया? मैंने दादाजी को आगाह किया कि वो अजनबी हमारे पीछे नहीं चल रहा है, शायद पीछे रह गया होगा, हमे शायद उसके लिए रुकना चाहिए, तो दादाजी ने झट कहा - उन्हें पता है वो हमारे पीछे नहीं आ रहा।
दादाजी के जवाब को मैं पत्थर की लकीर मानकर चुप हो गया। कुछ समझ नहीं आया, पर चुप रह गया, कुछ देर। लेकिन मन की चुप्पी में अशांत रहा, दादाजी को कैसे पता की वो पीछे नहीं आ रहा था? आखिर उन्हों ने ही उसको अपने पद चिन्ह देख, आने को कहा था?
यही प्रश्न कुछ देर मुझे असमंजस में डालते रहे। आखिर यही प्रश्न मैंने दादाजी से पूछे, उनका चहेता जो था! दादाजी ने मेरे प्रश्न सुने और कुछ कहा नहीं। हूं! बोलकर चलते रहे। शायद पांच बज रहे थे, सूरज अभी उगा नहीं था, पर पौ फटने में ज़्यादा देर ना थी। कुछ चिडियों का शोर शुरू हो चुका था, मुझे भी थोड़ी नींद सी आ रही थी। फिर भी मैंने फिर मन बनाकर दादाजी से फिर वही प्रश्न पूछा। इस बार उन्होंने एक लम्बी सांस ली और धीरे से पूछे: "क्या तुमने उसके पांव नहीं देखे?" मैंने कहा: "नहीं"। दादाजी बोले: "वह एक नर - पिशाच था। नर - पिशाचों के पांव उल्टे होते हैं। इसीलिए वो मेरे पद - चिन्ह देख उल्टे रास्ते चला गया। "
बस उस दिन से मैंने कभी दादाजी के साथ जाने की जिद नहीं की।
-हरेकृष्ण आचार्य
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उपसंहार: श्री देवदास आचार्य के दादाजी श्री नारायण आचार्य | इस वारदात का वर्णन कन्नड़ भाषा में श्री देवदास आचार्य ने अपने जीवन काल में कई बार की थी | इसको उनके बेटे श्री हरेकृष्ण आचार्य ने लिखित रूप में हिंदी भाषा में रूपांतरित किया है | अब ये मन गढंत बात थी या सच इस बात का निर्णय पाठक पर है | करोड़ कथाएं (ए बिलियन स्टोरीज़ ) सिर्फ एक प्रस्तुतकर्ता है |
Submitted by: हरेकृष्ण आचार्य
Submitted on:
Category: Story
Acknowledgements: This is Mine. / Original
$PHOTO_COURTESY$ Language: हिन्दी/Hindi
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[category Story, हिन्दी/Hindi, This is Mine. / Original]
बात १९५५ की होगी। उस समय सब पैदल ही जाते थे और गावों के बीच जंगल ही हुआ करते थे। ये है मेरे पिताजी की ज़बानी | पिताजी अपने दादा के बहुत प्रिय थे। दादाजी याने मेरे पड़ दादा।
दादाजी पंडित थे और उनको लोग घर पूजा के लिए बुलाया करते थे। ज़्यादातर ये पूजा सुबह- सुबह ही प्रारंभ करनी पड़ती थी। सुबह जल्दी पहुंचने के लिए दादाजी , जिनको पैदल जाना पड़ता था, सुबह ३-४ बजे ही निकल पड़ते थे। दादाजी को तैयार होता देख मैं भी उठ जाता था और दादाजी के साथ जाने की जिद करता था। कई बार दादाजी मुझे नकार देते थे , जंगली जानवरों का नाम लेकर, पर कई बार मेरा रोना देख वो पिघल जाते थे। ले चलते थे अपने कंधों पर। पकड़ा देते थे मुझे लालटेन आगे के रास्ते को उजला करने के लिए। ये उस दिन की बात है, जिस दिन दादाजी करीब साढ़े - तीन बजे घर से निकले मुझे अपने कंधों पे लिए, मैं लालटेन पकड़े, इस सुध में खोया था कि अब फिर मिलेगा अवसर लोमडियों की टिमटिमाती आंखें देखने का। मुझे इसी बात का बहुत चाव था - अंधेरे में लोमडियों की दूर से टिमटिमाती आंखें! इस बात का दादाजी को ज्ञान नहीं था - लेकिन इसी बात के कारण मैं जिद करता था उनके साथ जाने का।
उस दिन हम निकले और अपने छोटे से गांव को जल्द ही पीछे छोड़े जंगल में पांव के रास्ते से बढ़ते गए। दादाजी काफी तेज चलते थे। सफर भी अंदाजन डेढ़ घंटे पैदल का होगा। कुछ आगे बढ़े तो जंगल घना होता गया। मेरी आंखें लोमडियों की टिमटिमाती आंखें खोजने लगी। कुछ दिखीं , कुछ नहीं। एक तरफ कुछ आगे दो आंखे कुछ सर के ऊपर की ऊंचाई पर दिखीं। ये इतनी पास थीं की मैं दादाजी से पूछ बैठा, की ये दो बत्तियों जैसी चीज क्या है तो उनके जवाब से में सन्न रह गया। उन्होंने सहज ही बोला की वो काले - बाघ (ब्लैक पैंथर) की आंखे हैं। मैंने अपनी आंखें घुमाई और फिर किसी लोमड़ी की आंखें खोजने की कोशिश नहीं की। पर मैं दंग भी था कि दादाजी डरे नहीं और वैसे ही तेज बस चलते रहे। उस अंधेरे का डर अब मुझे समझ आया और मैं टिकटिकी लगाए बस आगे का रास्ता देखता गया। दादाजी चलते रहे। लालटेन जलती रही।
भोर होने का समय अभी भी दूर था, शायद सवा चार बजे होंगे। समय का ज़्यादा पता नहीं चला। मैं अब भी थोड़ा सन्न था। काले बाघ की आंखें अब भी कुछ आंखों के सामने ही थीं। तभी आगे से एक आहट आयी। देखा एक आदमी बस आगे ही खड़ा है, दादाजी के सामने।
लालटेन के उजियारे में ज़्यादा दूर दिखता नहीं था, बस कुछ हाथ, पांव के कुछ आगे, बस। उस आदमी ने दादाजी से उस गांव का रास्ता पूछा जिस गांव हम जा रहे थे। दादाजी ने उसे हमारे पद-चिन्ह देख आने को कहा क्योंकि हम भी वहीं जा रहे थे। वो "अच्छा ठीक" बोलकर हम जिस रास्ते से आ रहे थे , उसी रास्ते, हम जिस गांव से आ रहे थे , उसी ओर चला गया। मैं तो तब भी काले बाघ के बारे में सोच रहा था, पर कुछ देर बाद, मैंने पीछे मुड़ देखा तो अजनबी दिखाई नहीं दिया। मैंने थोड़ी लालटेन उठाकर और भी पीछे तक आंख घुमाई तब भी अजनबी दिखाई नहीं दिया।
अरे! ये कहां गया, मेरे मन में विचार आया, इसे तो हमारे पीछे - पीछे आना चाहिए था, आखिर उसी गांव जा रहा था जहां हम जा रहे थे, तो फिर ये किधर गया? मैंने दादाजी को आगाह किया कि वो अजनबी हमारे पीछे नहीं चल रहा है, शायद पीछे रह गया होगा, हमे शायद उसके लिए रुकना चाहिए, तो दादाजी ने झट कहा - उन्हें पता है वो हमारे पीछे नहीं आ रहा।
दादाजी के जवाब को मैं पत्थर की लकीर मानकर चुप हो गया। कुछ समझ नहीं आया, पर चुप रह गया, कुछ देर। लेकिन मन की चुप्पी में अशांत रहा, दादाजी को कैसे पता की वो पीछे नहीं आ रहा था? आखिर उन्हों ने ही उसको अपने पद चिन्ह देख, आने को कहा था?
यही प्रश्न कुछ देर मुझे असमंजस में डालते रहे। आखिर यही प्रश्न मैंने दादाजी से पूछे, उनका चहेता जो था! दादाजी ने मेरे प्रश्न सुने और कुछ कहा नहीं। हूं! बोलकर चलते रहे। शायद पांच बज रहे थे, सूरज अभी उगा नहीं था, पर पौ फटने में ज़्यादा देर ना थी। कुछ चिडियों का शोर शुरू हो चुका था, मुझे भी थोड़ी नींद सी आ रही थी। फिर भी मैंने फिर मन बनाकर दादाजी से फिर वही प्रश्न पूछा। इस बार उन्होंने एक लम्बी सांस ली और धीरे से पूछे: "क्या तुमने उसके पांव नहीं देखे?" मैंने कहा: "नहीं"। दादाजी बोले: "वह एक नर - पिशाच था। नर - पिशाचों के पांव उल्टे होते हैं। इसीलिए वो मेरे पद - चिन्ह देख उल्टे रास्ते चला गया। "
बस उस दिन से मैंने कभी दादाजी के साथ जाने की जिद नहीं की।
-हरेकृष्ण आचार्य
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उपसंहार: श्री देवदास आचार्य के दादाजी श्री नारायण आचार्य | इस वारदात का वर्णन कन्नड़ भाषा में श्री देवदास आचार्य ने अपने जीवन काल में कई बार की थी | इसको उनके बेटे श्री हरेकृष्ण आचार्य ने लिखित रूप में हिंदी भाषा में रूपांतरित किया है | अब ये मन गढंत बात थी या सच इस बात का निर्णय पाठक पर है | करोड़ कथाएं (ए बिलियन स्टोरीज़ ) सिर्फ एक प्रस्तुतकर्ता है |
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Acknowledgements: This is Mine. / Original
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